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तब तक पहेली को सुलझाने को प्रयासरत हूँ मैं / वंदना गुप्ता

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एक पहेली सुलझाने को
जब जब चली
उतना उलझती गयी
ये कौन है... जो बेचैन है
ये कौन है... जो आवाज़ लगाता है
ये कौन है... जो कराहता है
ये कौन है... जो खोज में है
कोई तो है, कोई तो है, कोई तो है
जो मुझमे से मुझे ढूंढता है

सुना है
कोई ईश्वर है
जिसे सब खोज रहे हैं
सुना है
उसकी खोज के बाद
कुछ खोजना बाक़ी नहीं रहता
तो क्या यही है मेरी भी खोज?
लगता तो नहीं कुछ ऐसा मुझे
होगा कोई ईश्वर कहीं
जिसे देखा नहीं, जाना नहीं, महसूसा नहीं
फिर कैसे कोई खोज में संलग्न है
खोज के लिए सुना है
कुछ तो निशानियाँ होती है
जिनके सहारे खोज आकार लेती है
और जिसका आकार नहीं, जो निराकार है
उसकी खोज कोई कैसे करे

नहीं नहीं-नहीं
ये सूक्ष्म जगत का सूक्ष्म व्यवहार
मेरी तो समझ से है पार
मुझमे कुछ तो है जो मुझे खोज रहा है
और वह ईश्वर नहीं... ...... इतना जानती हूँ
तो फिर क्या है... ......यही जानना है
खुद से ही इक संवाद करना है
शायद मुझे "मैं" मिल जाऊँ
और सम्पूर्णता पा जाऊँ
फिर कैसी अवधारणा
ईश्वर है या नहीं
साकार है या निराकार
क्या होगा जानकर
क्योंकि
सुना है
सब "मैं" में ही समाहित है
फिर चाहे ईश्वर हो या संसार या ब्रह्माण्ड

एक अणु ही तो है "मैं"
आत्मबोध, आत्मखोज, आत्मविलास
जिस दिन खुद से मुखरित होऊँगी
जिस दिन खुद को जानूँगी
जिस दिन खुद को पहचानूंगी
जिस दिन दृष्टि बदल जायेगी
और दृष्टि में ही सृष्टि समाहित हो जायेगी
उसी दिन, उसी पल, उसी क्षण
मेरी खोज पूर्ण हो जायेगी
जब मेरा "मैं" मुझे मुझमे मिल जाएगा

तब तक पहेली को सुलझाने को प्रयासरत हूँ... "मैं"