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तिरी क़ुर्बत वो पाना चाहता है / सिया सचदेव

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तिरी क़ुर्बत वो पाना चाहता है
भिखारी है खज़ाना चाहता है

जो क़तरा भी न बन पाया अभी तक
समंदर को सुखाना चाहता है

दीए की आत्मा का है धुवाँ जो
अब अपने घर को जाना चाहता है

मेरे बारे में अफ़वाहें उड़ा कर
वो मेरा क़द घटाना चाहता है

गुबार-ए-ग़म ज़मीं-ए-दिल से उठ कर
मुझे बादल बनाना चाहता है

हुआ उड़ने के काबिल जब परिंदा
नया इक आशियाना चाहता है