तीर-ए-नज़र ने ज़ुल्म को एहसाँ बना दिया / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी
तीर-ए-नज़र ने ज़ुल्म को एहसाँ बना दिया
तरकीब-ए-दिल ने दर्द को दरमाँ बना दिया
सद शुक्र आज हो गई तकमील इश्क़ की
अपने को ख़ाक-ए-कूचा-ए-जानाँ बना दिया
कोताही कोई दस्त-ए-जुनूँ से नहीं हुई
दामन को हम-किनार-ए-गिरेबाँ बना दिया
छोड़ी है जब से मैं ने सलामत-रवी की चाल
दुश्वारियों को राह की आसाँ बना दिया
ऐ माशअल-ए-उम्मीद ये एहसान कम नहीं
तारीक शब को तू ने दरख़्शाँ बना दिया
हुस्न-आफ़रीं हुआ है तसव्वुर जमाल का
दिल को हवा-ए-गुल ने गुलिस्ताँ बना दिया
ज़ोहद और इत्तेक़ा पे मुझे अपने नाज़ था
ख़ुद मैं ने तुझ को दुश्मन-ए-ईमाँ बना दिया
आईना-ए-जमाल को देखूँगा किस तरह
उस ने तो पहले ही मुझे हैराँ बना दिया
वो इम्तियाज़-ए-हुस्न है मानी ओ लफ़्ज़ का
‘वहशत’ को जिस ने ‘ग़ालिब’-ए-दौरान बना दिया