भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तीलियों का पुल / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
मुझे हर तीसरे दिन
तीलियों का पुल बुलाता है
शाम कहती है—कहो क्या बात है ?
एक शीशा टूट जाता है
बिखर जाती हैं सितारों की तरह किरचें
(नंगे) पाँव डरते हैं
और उड़-उड़ कर क़िताबों के नए पन्ने
मना करते हैं
बदन सारा कसमसाता है
धूल से मैली हुई है
पर न मैली हुई जो मन से
झाँकती है जब कभी तस्वीर वह
कभी खिड़की, कभी आँगन से
नींद की दो डोरियों के बँधे पाँवों में
कौन है जो थरथराता है ?
एक शीशा टूट जाता है