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तुमसे मेरा गोपन क्या है / रामगोपाल 'रुद्र'

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लेकिन ऐसा भी होता है,
जब बहुत-बहुत जी होता है
कुछ दिल की तुमसे बतियाऊँ,
बिलकुल खुलकर कुछ कह जाऊँ
तब शब्द नहीं मिल पाते हैं,
दो दल हिलकर रह जाते हैं!
वह मूक-मुखरतम अभिलाषा,
बेचैन बिजलियों की भाषा,
काँटे-काँटे की नोक बनी,
लिख जाती है पीड़ा अपनी;
फिर भी तुम बूझ नहीं पाते,
तब क्या बतलाऊँ, मन क्या है!

सिल नहीं, अगर शीशा होता
तो दिल भी क्या से क्या होता!
तुम चित्र बने होते इस पर;
हँसते इस पर, रोते इस पर;
जगना भी तब लगता सपना
चढ़ता सिर पर जादू अपना!
मैं ही आदर्श नहीं जब हूँ,
तब दोष तुम्हें नाहक क्यों दूँ?
सीधे दृग भी न उठा पाते,
तुम क्या जानो, चितवन क्या है!