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तुम्हारा आगमन / जगदीश गुप्त

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यह — तुम नहीं आए
लगा जैसे सुरभि ने
स्निग्ध प्राणों पर
जुही के, इन्द्रबेला के, कमल के,
ओस भीगे, पारिजाती फूल बरसाए।

पकी झुकती बालियों वाले
गीत गाते लहलहाते खेत की —
सुनसान ऊँची मेड़ पर
श्वेत स्लेटी सारसों के एक जोड़े ने
गेरूई दो गरदनें नीचे झुकाईं — पंख फैलाए।

झुटपुटे में साँझ के चूनर पहन
किसी नत शिर नव वधू ने
अरुण मेंहदी रचे हाथों से जला —
नील यमुना की लहरियों पर
पात में रख — मौन, घी के दीप तैराए।
 
हृदय को, मन को, नयन को
इस तरह भाए।
सच,
बहुत दिन बाद तुम आए।