तुम्हारी मूक अभिव्यक्ति की मुखर पहचान हूँ मैं / वंदना गुप्ता
सुनो
प्रश्न किया तुमने
देह के बाहर मुझे खोजने का
और खुद को सही सिद्ध करने का
कि देह से इतर तुम्हें
कभी देख नहीं पाया
जान नहीं पाया
एक ईमानदार स्वीकारोक्ति तुम्हारी
सच अच्छा लगा जानकर
मगर
बताना चाहती हूँ तुम्हें
मैं हूँ देह से इतर भी
और देह के संग भी
बस बीच की सूक्ष्म रेखा कहो
या दोनो के बीच का अन्तराल
उसमें कभी देखने की कोशिश करते
तो जान पाते
मै और मेरा प्रेम
मैं और मेरी चाहतें
मैं और मेरा होना
देहजनित प्रेम से परे
मेरे ह्रदयाकाश मे अवस्थित
अखण्ड ब्रह्मांड सा व्यापक है
जिसमें मेरा देह से इतर होना समाया है
बस भेदना था तुम्हें उस ब्रह्मांड को
अपने प्रेमबाण से
जो देह पर आकर ही ना
अपना स्वरूप खो बैठे
क्या चाहा देह से इतर
सिर्फ़ इतना ना
कभी कभी आयें वो पल
जब तुम्हारे स्पर्श में
मुझे वासनामयी छुअन
का अहसास ना हो
कभी लेते हाथ मेरा अपने हाथ में
सहलाते प्रेम से
देते ऊष्मा स्पर्श की
जो बताती
मैं हूँ तुम्हारे साथ
तुम्हारे हर अनबोले में
तु्म्हारे हर उस भाव में
जिन्हें तुम शब्दों का जामा नही पहना पातीं
"तुम्हारी मूक अभिव्यक्ति की मुखर पहचान हूँ मैं"
ओह! सिर्फ़ इन्हीं शब्दो के साथ
मैं सम्पूर्ण ना हो जाती
या कभी पढते आँखों की भाषा
जहाँ वक्त की ख्वाहिशों तले
मेरा वजूद दब गया था
मगर अन्दर तो आज भी
एक अल्हड लडकी ज़िन्दा थी
कभी करते कोशिश
पढने की उस मूक भाषा को
और करते अभिव्यक्त
मेरे व्यक्त करने से पहले
आह! मैं मर कर भी ज़िन्दा हो जाती
प्रेम की प्यास कितनी तीव्र होगी सोचना ज़रा
क्या ज्यादा चाहा तुमसे
इतने वर्ष के साथ के बाद
जहाँ पहुँचने के बाद शब्द तो गौण हो जाते हैं
जहाँ पहुँचने के बाद शरीर भी गौण हो जाते हैं
क्या इतना चाहना ज्यादा था
कम से कम मेरे लिये तो नही था
क्योंकि
मैने तुम्हें देह के साथ भी
और देह से इतर भी चाहा है
जानते हो
कभी कभी जरूरत होती है
देह से इतर भी प्रेम करने की राधा कृष्ण सा
सम्पूर्णता की चाह में ही तो भटकाव है,प्यास है, खोज है
जो मेरी भी है और तुम्हारी भी
बस फ़र्क है तो स्वीकार्यता में
बस फ़र्क है तो महसूसने में
बस फ़र्क है तो उसके जीने में
और मैं और मेरी प्यास अधूरी ही रही
मुझे पसन्द नहीं अधूरापन
क्योंकि
ना तुम आदि पुरुष हो ना मैं आदि नारी
इसलिये
खोज जारी है देह से इतर प्रेम कैसे होता है
अधूरी हसरतों को प्यास के पानी से सींचना सबके बस की बात नहीं