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तुम्हारे ग़म का मौसम है अभी तक / अनीस अंसारी
Kavita Kosh से
चोट लगी तो अपने अन्दर चुपके चुपके रो लेते हो
अच्छी बात है आसानी से जख्मों को तुम धो लेते हो
दिन भर कोशिश करते हो सबको गम का दरमाँ मिल जाये
नींद की गोली खाकर शब भर बेफ़िक्री में सो लेते हो
अपनों से मोहतात रहो, सब नाहक़ मुश्रिक समझेंगे
ज्यों ही अच्छी मूरत देखी पीछे पीछे हो लेते हो
ख़ुशएख्लाक़ी ठीक है लेकिन सेहत पे ध्यान ज़रूरी है
बैठे बैठे सब के दुख में अपनी जान भिगो लेते हो
क्यों ठोकर खाते फिरते हो अनदेखे से रस्तों पर
जख्मों के भरने से पहले पत्थर और चुभो लेते हो
'अंसारी जी' आस न रक्खो कोई तुम्हें पढ़ पायेगा
क्या यह कम है पलकों में तुम हर्फ़-ए-अश्क पिरो लेते हो