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तुम्हारे हुस्न की तस्ख़ीर आम होती है / बेहज़ाद लखनवी
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तुम्हारे हुस्न की तस्ख़ीर आम होती है
कि इक निगाह में दुनिया तमाम होती है
जहाँ पे जल्वा-ए-जानाँ है अंजुमन-आरा
वहाँ निगाह की मंज़िल तमाम होती है
वही ख़लिश वही सोज़िश वही तपिश वही दर्द
हमें सहर भी ब-अंदाज़-ए-शाम होती है
निगाह-ए-हुस्न मुबारक तुझे दर-अंदाज़ी
कभी कभी मिरी महफ़िल भी आम होती है
ज़हे नसीब में क़ुर्बान अपनी क़िस्मत के
तिरे लिए मिरी दुनिया तमाम होती है
नमाज़-ए-इश्क़ का है इंहिसार अश्कों तक
ये बे-नियाज़-ए-सुजूद-ओ-क़याम होती है
तिरी निगाह के क़ुर्बान तिरी निगाह की टीस
ये ना-तमाम ही रह कर तमाम होती है
वहाँ पे चल मुझे ले कर मिरे समंद-ए-ख़याल
जहाँ निगाह की मस्ती हराम होती है
किसी के ज़िक्र से ‘बहज़ाद’ मुब्तिला अब तक
जिगर में इक ख़लिश-ए-ना-तमाम होती है