भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम कुछ भी कहो भले / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

'तुम कुछ भी कहो भले, कहकर सुख पा‌ओ।
डाँटो, दुत्कारो, पर निकुजमें आ‌ओ॥
अब देखे बिना न मैं पलभर रह पाता।

तुमसे क्या कहूँ-न कुछ भी मुझे सुहाता॥
मुरली, लकुटी, प्रिय सखा, वत्स, गो-माता।
है नहीं किसीसे मेरा मन हरषाता॥
मैयाका मिश्री-माखन मुझे न भाता।

मन अधर-सुधा-रस-पान-हेतु बिलखाता॥
क्या भेजूँ तुहें सँदेश, न मैं लख पाता।

तुम मिलो तुरत, बस, एक यही मन आता॥
है प्रेम नहीं मुझमें, जो मन सरसाता।

दृग-मधुप-युगल तव मुख-पङङ्कज मँडराता॥
तुम हो प्राणोंकी प्राण न अब तरसा‌ओ।

मैं पैरों पड़ता, मुझे न यों छिटका‌ओ॥
प्राणेश्वरि! विनती सुनो मुझे अपना‌ओ।
दर्शन दे मुझको प्राण-दान दो, आ‌ओ॥
आना न रुचे तो मुझको ही बुलवा‌ओ।
दे अनुमति, मुझपर प्रिये! दया दिखला‌ओ॥
तुम अब भी यदि मुझपर न दया ला‌ओगी।
तो मुझे प्राण-संकटमें तुम पा‌ओगी’॥
दूतीने आ जब यह संदेश सुनाया।
रा‌ई रो पड़ी, पड़ी हो मूर्च्छित काया॥
दौड़ी सखियाँ, कर यत्न चेत करवाया।
बोली-’मैं कितनी हूँ निर्दयी, अमाया॥
मैं प्राणनाथको हूँ कितना दुख देती ?
उनसे केवल मैं निज सुखको ही लेती’॥
हो आतुर अति, दूतीको ले सँग आयी।
देखी प्रियतमकी बुरी दशा अकुलायी॥
निज पटसे पोंछे नेत्र मधुर-मृदु हँसकर।
फिर प्राणनाथसे मिली बाहुमें कसकर॥
सब मिटी व्यथा मुखपर मुसकाहट छायी।
कर अधर-सुधा-रस-पान गले लपटायी॥
सब हु‌ए प्रड्डुल्लित अङङ्ग, बही रस-धारा।
सुख अन्तहीनने सारे दुखको मारा॥