भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम डुबो दो अपना जिस्म पानी में / धीरेन्द्र सिंह काफ़िर
Kavita Kosh से
तुम डुबो दो अपना जिस्म पानी में
तो खुल जाएँ अकदे कई
तुम अपनी जुबां खोलो तो सही
कितनो की हतक हुई है तुमसे
तुम्हारा जिस्म पानी में घुलता ही नहीं
वो रंग भी नहीं जो चढ़े हैं जिस्म पर तुम्हारे
कितने अहवाल रखे हैं बदलकर तुमने
हवा कितनी मैली है तुम्हारे रंग से
उसका भी जिस्म अब अबस हो गया
अब कौन छुएगा उसको?
किसको छुएगी वो?
न जाने कितनो को उज्र है-
तुम्हारे बदलते रंगों से
कतरा-कतरा तुमसे मंसूब हुआ,
पर तुम्हारे रंग न छुटा सका
कोई रंग बदलने का तरीका सीखे तो तुमसे
कितने पक्के रंग ओढ़ रखे हैं तुमने
तुम डुबो भी दो अपना जिस्म पानी में
तो नहीं खुलने अकदे कोई
तुम्हारे जिस्म पर चढ़े रंग
बहुत पक्के हैं...
बहुत पक्के!