भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम नहीं / मरीना स्विताएवा
Kavita Kosh से
तुम कभी नहीं भगा सकोगे मुझे !
बहार को क्या कोई ठुकराता है !
अपनी उंगली से भी छू नहीं सकोगे तुम मुझे :
सुला देंगे तुम्हें मेरे मादक मधुर गीत !
निंदा नहीं कर सकोगे तुम मेरी
होठों के लिए पानी है मेरा नाम !
तुम छोड़ नहीं सकोगे मुझे कभी :
खुला है द्वार और घर-- खाली !
रचनाकाल : 24 जुलाई 1919
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह