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तुम लोगों से हु‌आ, न होगा / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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तुम लोगों से हु‌आ, न होगा कभी प्रेमदेवियों! वियोग।
दिव्य नित्यलीला में रहता है अविछिन्न नित्य संयोग॥
जैसे रहता छिपा सूर्य कुहरे में होता नहीं प्रकाश।
वैसे ही वियोग-क्रन्दनमें रहता छिपा नित्य मैं पास॥
होता मैं उस काल देखकर मुग्ध तुहारे भाव अनन्य।
विरह-दुःख अति स्मृति-सुख युगपत दिव्य देख कह उठता धन्य॥
जगत, जगतके सुख, इन्द्रिय, इन्द्रियके सभी अर्थका त्याग।
मन-मति इह-पर भूल विरह-कातर होती, मन भर अनुराग॥
अमिलनमें तुम देख वदन-विधु यों बन जाती चारु चकोर।
हो प्रमुदित उन्मा नृत्य करने लगता तब मानस-मोर॥
बनकर मैं मन-बुद्धि, प्राण, इन्द्रिय, सब अर्थ तुहारे आप।
बनता फिर उनका अनन्य आश्रय मैं, करता नित्य मिलाप॥
नव किशोर नटवर मुरलीधर मोर-पिच्छ-सिर मोहन रूप।
प्रियतम सदा तुहारा नित-नव-वर्धन प्रेमानन्द अनूप॥
अतुल त्यागसे उदित तुहारे सहज प्रेमसे मैं भगवान।
रहता मिला सदा ही तुममें बाहर-भीतर सदा समान॥
भोग-जगत्‌से ऊपर उठकर तुमने मुझे ले लिया मोल।
प्रेम-सुधा-हित सदा तुहारे ललचाता मन, रहता लोल॥
इन्द्रिय-भोग-स्वर्ग-सुख-कामी, मोक्षाकांक्षी भी धीमान।
मुझे नहीं पा सकते वैसे, जैसे तुम पा चुकी अमान॥
मेरी श्रद्धा, सेवा, महिमाका रहस्य जो गोपन शुद्ध।
उसे यथार्थ जानती हो तुम जगत-वासना-शून्य विशुद्ध॥
मेरे सभी मनोरथ होते उदित यथार्थ तुहारे चिा।
प्रिय अति मुझे इसीसे तुम त्यों, ज्यों प्रिय अति निर्धनके विा॥
कभी किया हो जिसने आनँदमयको यों आनन्दविभोर।
सदृश तुहारे तुहीं, जगत्‌में हु‌आ न को‌ई तुम-सा और॥