तुम वही आदिममानव! / मुकेश निर्विकार
हाँ, तुम वही हो—
आदिमानव
खूंख़्वार एक!
धारे हो बेसक,
अपने तन पर
इक्कीसवीं सदी का
सभ्य वेष!
दरअसल, अब तो तुम
और भी अधिक असभ्य हो गए हो—
पहले खाते थे केवल फल
पेड़ से, किन्तु अब जंगलों को ही निगल रहे हो
किडनैपिंग, बलात्कार, डकैती, चोरी, घूसख़ोरी
तुम्हारे ही तो विकसित मानस के इजाद हैं
और नई-नई बीमारियाँ
तुम्हारी कृतिम सभ्यता की सौगात।
असल में तो अब तुम
मानव तो छोड़ो
जानवर भी नहीं रहे हो!
जरा सोचो अपनी विकास-यात्रा पर
क्योकि सोचने की शक्ति
केवल तुम्हारे ही पास है
सभी जीवों में,
लेकिन तुम उसका
सही इस्तेमाल ही कब करते हो?
कभी ढंग से सोचोगे तो पाओगे
एकांत में अपनी आत्मा के आईने में
तुम आज भी नंगे हो, बर्बर होम हूस हो,
तमाम कपड़ों में लिपटे होने के बावजूद
हाँ, तुम वही हो--- आदिमानव, खूंख्वार एक....