भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तू आलीशान ऐवा मैं टूटा मकाँ ठहरा / कबीर शुक्ला
Kavita Kosh से
तू आलीशान ऐवान है मैं टूटा मकाँ ठहरा।
तू सरनाम जमाने में मैं बेनामो-निशाँ ठहरा।
तू चाँद-सी ख़ूबसूरत किसी गुल-सी हसीं है,
तू हूर-ए-ज़न्नत मैं नादाँ बेख़बर इंसाँ ठहरा।
तू सबा-ए-सुबहे-गुल तू कोई नूरे-सहर-सी है,
तू इक फ़स्ले-बहार-सी मैं बर्ग़े-ख़िजाँ ठहरा।
तू इक्तिजा-ओ-ख़्वाहिशो-अरमाँ किसी की,
तू मुकम्मल ख़्वाब मैं ख़्वाबे-परीशाँ ठहरा।
तू मूरत-सी है जिसके लाखों का़यल दीवाने,
मैं ख़नाबदोश कभी यहाँ कभी वहाँ ठहरा।
मेरा उफ़्ताद तो देखो मैं मेरे इबादतगाह में,
मैं मेरे कू-ए-यार में बस ज़ुमाँ-ज़ुमाँ ठहरा।
तू इब्तिशामे-हयात तू तबस्सुम-ए-शायर है,
'कबीर' कोई बिखरा ग़मगीं उनवाँ ठहरा।