भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है / जाँ निसार अख़्तर
Kavita Kosh से
तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है
तुझे अलग से जो सोचू अजीब लगता है
जिसे ना हुस्न से मतलब ना इश्क़ से सरोकार
वो शख्स मुझ को बहुत बदनसीब लगता है
हदूद-ए-जात से बाहर निकल के देख ज़रा
ना कोई गैर, ना कोई रक़ीब लगता है
ये दोस्ती, ये मरासिम, ये चाहते ये खुलूस
कभी कभी ये सब कुछ अजीब लगता है
उफक़ पे दूर चमकता हुआ कोई तारा
मुझे चिराग-ए-दयार-ए-हबीब लगता है
ना जाने कब कोई तूफान आयेगा यारो
बलंद मौज से साहिल क़रीब लगता है