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तू कभी ख़ुद के बराबर इधर नहीं आता / ध्रुव गुप्त
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तू कभी ख़ुद के बराबर इधर नहीं आता
मैं भी आता हूं मगर टूटकर नहीं आता
तबील रात, बड़े दिन, पहाड़ सी शामें
अलावा चैन के कुछ मुख़्तसर नहीं आता
तू सोचता है कभी भूल जाएगा मुझको
मैं जानता हूं तुझे यह हुनर नहीं आता
घर से रूठे हुए हमलोग वहां तक आए
जहां से लौट के कोई भी घर नहीं आता
अपने कमरे में ये मासूमियत कहां होती
रोज़ खिड़की पे परिन्दा अगर नहीं आता
यहां से आप जहां जाएं, जिधर हम जाएं
किसी भी राह में कोई शजर नहीं आता