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तू वफ़ा कर न कर ज़िंदगी / अमर पंकज

तू वफ़ा कर न कर ज़िंदगी,
जी रहा मैं मगर ज़िंदगी।

हर दिशा कह रही है मुझे,
हादसों का सफ़र ज़िंदगी।

कुछ मुझे भी पता तो चले,
जा रही है किधर ज़िंदगी।

रोज़ मैं दे रहा इम्तिहाँ,
इम्तिहाँ है अगर ज़िंदगी।

चल रहीं तेज हैं आँधियाँ,
पर अडिग है शजर ज़िंदगी।

छँट रही स्याह शब देखिये,
सुर्ख-सी हर सहर ज़िंदगी।

लह्र में तैरना सीख ले,
हर तरफ़ है भँवर ज़िंदगी।

हादसे सिर्फ़ हैं हादसे,
टूट मत इस क़दर ज़िंदगी।

हार क्या जीत क्या सोच मत,
हर घड़ी है समर ज़िंदगी।

वक़्त हो गर बुरा सब्र कर,
कह रही है ‘अमर’ ज़िंदगी।