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तू हर परिन्दे को छत पर उतार लेता है / मुनव्वर राना
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तू हर परिन्दे को छत पर उतार लेता है
ये शौक़ वो है जो ज़ेवर उतार लेता है
मैम आसमाँ की बुलन्दी पे बारहा पहुँचा
मगर नसीब ज़मीं पर उतार लेता है
अमीर-ए-शहर की हमदर्दियों से बच के रहो
ये सर से बोझ नहीं सर उतार लेता है
उसी को मिलता है एज़ाज़ भी ज़माने में
बहन के सर से जो चादर उतार लेता है
उठा है हाथ तो फिर वार भी ज़रूरी है
कि साँप आँखों में मंज़र उतार लेता है