भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तेज़ी से बदलते हुए शहर... / ब्रजेश कृष्ण
Kavita Kosh से
जब तक कि वह
अपनी नाप के जूते तलाश कर
पहनता और चलता
तब तक तो
बहुत आगे बढ़ चुका था शहर
शहर में खुल चुका था ज़िमखाना क्लब
शहर में मिल रही थीं
शहनाज़ की प्रसाधन वस्तुएँ और
चुनी जा रही थी शहर की सुन्दरी
शहर में सभी प्राध्यापक खरीद चुके थे कारें
और भूल चुके थे लड़के और लड़कियाँ
अपने ही शहर का नाम
नये फ़्लाईओवर के आर-पार
मोटर साइकिल पर तेज़ी से दौड़ता हुआ शहर
अब बात करता था सिर्फ़ मोबाइल पर
नये आसमान की तलाश में
उड़ान भरने को आतुर
यह छोटा-सा शहर
बहुत तेज़ी से बदल रहा था
और वह
अपनी नाप के जूते तलाशते हुए
अब तक ठिठका खड़ा था
अम्बेडकर चौक की एक
पुरानी-सी दुकान पर।