भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तेरमोॅ अध्याय / गीता / कणीक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तेरमोॅ अध्याय

(क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग के नामोॅ से यै अध्याय केॅ जानलोॅ जाय छै। संसार में परमात्म तत्व ज्ञेय छेकै जेकरा जानला सें जन्म मृत्यु के बन्धन सें छुटकारा मिलै के योग बनै छै। कार्य-कारण, ज्ञान-ज्ञेय, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, पुरूष-प्रकृति, आत्मा-परमात्मा के साथ-साथ प्रकृति आनन्द आरो चेतना के विवेचन यै अध्याय में होलोॅ छै, जेकरा जानला सें मुक्ति के पथ प्रसस्त होय छै)

अर्जुनें कहलकै हे केशव!
हमरा समझावोॅ प्रकृति पुरूष
क्षेत्रज्ञ क्षेत्र आरो ज्ञान ज्ञेय
हौ सुनै के इच्छा हमरा बस!॥1॥

भगवानें बतैलकै-कुन्ती पुत्र! है काया क्षेत्र तोहें मानोॅ
जोंने समझै यै काया केॅ ओकरा क्षेत्रज्ञ भी तों जानोॅ॥2॥

हे भारत! तोहें है समझोॅ, सब काया के क्षेत्रज्ञ हम्हीं
हमरोॅ छै मत क्षेत्रज्ञ क्षेत्र के, ज्ञाता खाली ज्ञान सही॥3॥

हौ क्षेत्र-क्रिया संस्थानोॅ के, परिवर्तन कैसें धर्म बनै?
हमरा से सुनोॅ क्षेत्रज्ञ छै के? छै की प्रभाव-कैसें हौ चुनै?॥4॥

है ऋषि मुनिं बैदिक छन्दोॅ सें, कैॅक तरह के बतैने छै
हौ कारण-कार्य के हेतु विषय, वेदान्त सूत्रें भी गैनें छै॥5॥

छै पंच महाभूतोॅ में सामिल, अहंकार, बुद्धि अव्यक्त
दश इन्द्रिय मन आरो पंचेन्द्रिय, जे धाम इन्द्रियोॅ केरोॅ व्यक्त॥6॥

क्षेत्रोॅ के संक्षेपन उद्धरण, छै प्रतिक्रिया के संग धृति
संघात चेतना, सुख-दुःख आरो, इच्छा द्वेषोॅ केरोॅ बृति॥7॥

अमानित्व<ref>दुत्कार पर</ref> अहिंसा दम्भरहित, सादापन सहज के संग संग
स्वच्छता, आचार्योॅ के पूजन, स्थिरता, आत्म पेॅ नियंत्रण॥8॥

वैराग्य इन्द्रियोॅ सें करी केॅ अन-अहंकार के राह धरै
जे जन्म-जरा-मृत्यु, दुःख दोष के भी अनुदर्श<ref>निरीक्षण</ref> करै॥9॥

हो निरावद्य बिनु संगी के, गृह-पुत्र पत्नी परिवारोॅ सें
बनी नित्य खुशी गम में डूबै, चित्त भक्ति लानी विचारोॅ सें॥10॥

एकान्त स्थलोॅ के खोजै, असकरे छोड़ि संगी साथी
बस, योग साधना मस्त रहै, हमरा पर भक्ति के चित्त राखी॥11॥

अध्यात्म ज्ञान संग आत्मज्ञान, अन्तिम सच के ही तलासोॅ में
है सभ ज्ञानोॅ के बात कहौ, अज्ञान उलट यै ज्ञानोॅ सें॥12॥

आबेॅ ज्ञेय की छेकै एकरा सुनोॅ, जानी केॅ अमृत स्वाद चखोॅ
प्रारम्भ रहित हमरे अधीन, ब्रह्म कारज-कारण रहित बुझोॅ॥13॥

परमात्मा के सर्वत्र हाथ, पद, चक्षु मुख औॅ सिर पैभौ
सर्वत्र लोक श्रुति में व्यापित, हुनकोॅ उपस्थिति भी देखभौ॥14॥

इन्द्रिय के हुनीं आभास करै, तैय्यो इन्द्रिय सें रहै परे
गुणधारी गुणोॅ के कर्म करी, असक्त हो पोषण कार्य करै॥15॥

हौ परम सत्य बहिः अन्तर ब्यापित, चर अचरोॅ केॅनित्य लखै
धरी सूक्ष्म दृष्टि परे रही पृथक, वें दूर अदूर केॅ सब देखै॥16॥

सब प्राणी में लागै विभक्त, फिर भी अविभक्त बनी स्थित
सबके पोषक हौ ज्ञेय रहै, तैय्यो विकाश-क्रम में साधित॥17॥

हर ज्योति के छै हौ श्रोत-विन्दु, तम आवृत सें हौ परे पुरूष
हौ ज्ञेय ज्ञान के परम धाम, सब के हृद में स्थित हौ पुरूष॥18॥

है क्षेत्र ज्ञान आरो ज्ञेय तत्व, संक्षेप में तोहें जे जानल्हौ
तोर्है सन भक्तें ही जानतै, जेकरा आभी तोहें सुनल्हौ॥19॥

है प्रकृति आरो हौ पुरूष दोन्हूं सें, यै जग के आबादी छै
ओकर्है प्रतिरूपक त्रिगुणोॅ सें, प्रकृति के संभव वादी छै॥20॥

कारण-कारज के होला सें ही, प्रकृति हेतु तैयार भेलै
जे भौतिक प्राणी हेतु भोग आरो, सुख दुःख के जरिया बनलै॥21॥

प्राणी जे प्रकृति के बीच बसै, प्रकृति के त्रिगुणोॅ केॅ भुगतै
सत-असत चक्र योनि में फंसी, जन्मोॅ के फेरा में जुटै॥22॥

उपद्रष्टा<ref>देखैवाला</ref> भर्त्ता<ref>मालिक</ref> परमात्मां, भोक्तां <ref>स्वीकृति दै बाला</ref> वास करै
हौ महेश्वर ही देहोॅ में, आत्मां के हरदम पास रहै॥23॥

जें जानै दर्शण, मुक्त हुवै, यै पुरूष प्रकृति के त्रिगुणोॅ सें
दुःख शोक सें छुटकारा ओकरा, आरो छुटकारा जनमोॅ सें॥24॥

कोय स्थिर चित्त सें ध्यान धरी, परमात्मा केॅ ही देखै छै
कोय साँख्य-याग, कोय कर्म योग, साधी निश्काम केॅ लेखै छै॥25॥

जे तत्व ज्ञान सें रहित मनुज, प्रज्ञोॅ के बातोॅ केॅ बूझै
हौ जनम-मृत्यु से परै रहै, जें परम पुरूष सीधे पूजै॥26॥

हे भरत पुत्र! चर अचर सभे, जेकरा देखै छौ नजरोॅ सें
सब क्षेत्र छेकै क्षेत्रज्ञोॅ के, संयोग योग के फेरोॅ सें॥27॥

सब प्राणी के आत्मा संगें, ही परमात्मा के वास रहै
जे बूझै छै है जानै छै, दोनोॅ के कभी नैं नाश हुवै॥28॥

वै हिनस्ताय से दूर मनुजें, बस परम गति ही पाबै छै
सब आत्मा में ईश्वर ही बसै, जौने सगरोॅ है गाबै छै॥29॥

जौनें है देखै जानैछै, कि प्रकृति सभै के कर्त्ता छै
वें आपन्हैं मति सें जानै छै, कि केॅ कर्त्ता केॅ धर्त्ता छै?॥30॥

पर जें प्राणीं नै जानै छै, प्राणी-प्राणी के पृथक रूप
वें सही समय में पाबै छै, मृत्युपरान्त ब्रह्म के स्वरूप॥31॥

जें आत्मा केॅ आदि के रहित, गुण परे देह के साथ धरै
हे कुन्ती पुत्र! आत्मा नै करै कुछ, हौ यै सब सें दूर रहै॥32॥

जे रङ सरङोॅ में कोय चीजें, लिपटै के भ्रम हरदम्में करै
बस, वही अवश्था आत्मा के, देहोॅ के स्थिति सें गुजरै॥33॥

जैसेॅ रवि के सौंसे प्रकाश, धरती के जगमग रूप करै
तैसें आत्मा देहोॅ में रही, वस क्षेत्र-क्षेत्रि आभास करै॥34॥

जें ज्ञानी! अपनोॅ ज्ञान चक्षु सें
क्षेत्र आरो क्षेत्रज्ञ बुझै
हौ भूत प्रकृति के बन्धन सें
हो मुक्त आबि परमोॅ केॅ रिझै

शब्दार्थ
<references/>