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तेरे भीतर पैदा हो यह गुन / देवेन्द्र आर्य
Kavita Kosh से
तेरे भीतर पैदा हो यह गुन।
तू भी मतलब भर की बातें सुन।
घर इतने एख़लाक से पेश आया
मैंने खुद को समझ लिया पाहुन।
नफ़रत के अवसर ही अवसर हैं
प्यार का लेकिन बनता नहीं सगुन।
आँख लगी तो क्या देखा मैंने
गले मिले थे कर्ण और अर्जुन।
मन के दो ही रंग, हरा-भगवा
ऐसे में किस रंग का हो फागुन।
सुर भी बेसुर होने लगता है
जब बजती है एक ही धुन।
अब तक कब का बेच चुके होते
कविताएँ भी होतीं जो साबुन।