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तैयारी / लक्ष्मीकान्त मुकुल
Kavita Kosh से
उगा नहीं था चांद
तब भी जला चुके थे
तारे अपने दीये
उस काली रात में
सब निवृत्त हो चुके थे
अपने कामों से
आया मेरे मन में
घूम आउफं खेत-बधर से
देख आऊँ मक्का के खेत
सुन आऊँ पौधें की बातचीत
उछलते जा रहे थे पांव
मेड़ों की राह पकड़े
तब ही हकबका गये हम
कहीं से बहकर आती
आवाज को सुनकर
जैसे लगा
कि अगिया वैताल की तरह
गप्पें लड़ाते हुए लोग
खो दिये हों मानो
अपनी उम्मीदों के घड़े
खलबला गये थे
पेड़ों पर उफंघते पक्षी
और गरमा रहा था गांव
डरते हुए हम
बढ़ते गये सीवान की ओर
लगा कि जैसे तैयार हो चुकी हों
खेतों की पफसलें
चलने के लिए
उधर घुमड़ रहे थे बादल
टपकने लगा था आसमान।