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थोड़ी सी कमी / निदा फ़ाज़ली
Kavita Kosh से
हर कविता मुकम्मल होती है
लेकिन वह क़लम से काग़ज़ पर जब आती है
थोड़ी सी कमी रह जाती है
हर प्रीत मुकम्मल होती है
लेकिन वह गगन से धरती पर जब आती है
थोड़ी सी कमी रह जाती है
हर जीत मुकम्मल होती है
सरहद से वह लेकिन आँगन में जब आती है
थोड़ी सी कमी रह जाती है
फिर कविता नई
फिर प्रीत नई
फिर जीत नई बहलाती है
हर बार मगर लगता है यूँ ही
थोड़ी सी कमी रह जाती है