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दरिया / शरद कोकास
Kavita Kosh से
एक
कितनी नमकीन हो जाती है
तुम्हारी मीठी सी आवाज़
बच्चों सी ठुनकती हो जब तुम
जैसे दरिया की लहरें
सुबह-सुबह टकराती हों
किनारे की चट्टानों से।
दो
और गहरा हो जाता है दरिया रात में
जैसे दुख मेरे मन के तल में
लहरें एक टीस सी टकराती हैं
और थपेड़े
मेरा चैन छीन कर ले जाते हैं।
-2009