भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दरिया / शरद कोकास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक

कितनी नमकीन हो जाती है
तुम्हारी मीठी सी आवाज़
बच्चों सी ठुनकती हो जब तुम

जैसे दरिया की लहरें
सुबह-सुबह टकराती हों
किनारे की चट्टानों से।

दो

और गहरा हो जाता है दरिया रात में
जैसे दुख मेरे मन के तल में
लहरें एक टीस सी टकराती हैं
और थपेड़े
मेरा चैन छीन कर ले जाते हैं।

-2009