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दर्पण-सी हँसी / सविता सिंह

एक हँसी दर्पण-सी अपने होठों पर रख ली थी उसने

जिसमें देवताओं ने देखे अपने दुख

जिसमें कितने ही तारे उतरे देखने अपने अंधेरे

एक फूल जिसमें अपना दर्द उड़ेल गया

एक औरत छोड़ गई जिसमें अपनी नग्नता


उस हँसी पर बाद में देर तक चांदनी बरसी

हवा घंटों उसे पोंछती रही

बारिश ने उसे धोने की अनेक कोशिशें कीं

लेकिन वह सभी कुछ जो उसमें संग्रहित हुआ

ज्यों का त्यों संचित रहा


देवता अपनी कुरूपता पर फिर कभी

दुखी नहीं हुए

तारे नहीं हुए विचलित अपने सत्य के बाद में कभी

फूल मुरझाया नहीं अपनी पीड़ा से उसके बाद

एक औरत लज्जित नहीं हुई अपनी देह से फिर