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दर ओ दीवार पे शकलें से बनाने आई / 'कैफ़' भोपाली
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दर ओ दीवार पे शकलें से बनाने आई
फिर ये बारिश मेरी तनहाई चुराने आई
ज़िंदगी बाप की मानिंद सजा देती है
रहम-दिल माँ की तरह मौत बचाने आई
आज कल फिर दिल-ए-बर्बाद की बातें है वही
हम तो समझे थे के कुछ अक्ल ठिकाने आई
दिल में आहट सी हुई रूह में दस्तक गूँजी
किस की खुशबू ये मुझे मेरे सिरहाने आई
मैं ने जब पहले-पहल अपना वतन छोड़ा था
दूर तक मुझ को इक आवाज़ बुलाने आई
तेरी मानिंद तेरी याद भी ज़ालिक निकली
जब भी आई है मेरा दिल ही दुखाने आई