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दामन अपना तार-तार है / ध्रुव गुप्त
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दामन अपना तार-तार है
जीने में फिर भी ख़ुमार है
मुद्दत हुई तुम्हें भी गुज़रे
सड़कों पर कैसा ग़ुबार है
कभी दिलों के आसपास था
घर अब आदत में शुमार है
इक ढलान है हर जज़्बे का
हर तूफां का इक उतार है
आंखें वो अनमोल हैं जिनमें
सपनों की लम्बी क़तार है
जिसको आना था, आया है
हमको अपना इंतज़ार है