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दारुण अन्त / सविता सिंह
Kavita Kosh से
नहीं आती रोशनी वहाँ
जहाँ जीने लगता है अन्धकार
हम सब का जीवन
नहीं ठहरती क्षमा
पलट कर चल देती है निष्ठुरता की ओर
क्रूरता ही बन जाए जहाँ जीवन का पर्याय
नहीं होगी करुणा
लिए जा रहा है अदृश्य संस्कार हमें जहाँ
रुदन में मिश्रित पश्चाताप ही होगा
और दारुण अन्त उस सपने का
जो है हमारा देश