भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिये की लौ से हवा को पछाड़ देता है / देवेन्द्र आर्य

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिये की लौ से हवा को पछाड़ देता है ।
वो एक नज़र से अँधेरे को फाड़ देता है ।

रथी रहा न कोई ना कोई विरथ हरदम
ये वक़्त वक़्त को धरती में गाड़ देता है ।

दिनन के फेर हैं चुप बैठ देखिए रहिमन
समय बसाने के पहले उजाड़ देता है ।

ये मुफ़लिसी है कि अज्ञान है कि कमज़र्फ़ी
ये क्या है वो मुझे जब देखो झाड़ देता है ।

लगा न बैठे कोई शेर-ओ-शायरी दिल से
अदब दिमाग़ का नक़्शा बिगाड़ देता है ।

जो एक बार पनप जाए शक का यह कीड़ा
जमी-जमाई गृहस्थी उजाड़ देता है ।

हमारा होना न होना है फ़ायदे से जुड़ा
दरख़्त अपने ही पत्तों को झाड़ देता है ।