दिल्ली की सडकों पर किसान / लक्ष्मीकान्त मुकुल
(20-21 नवम्बर, 2017 को देश भर के किसानों का दिल्ली में महाप्रदर्शन)
छा गए हैं दिल्ली की सडकों पर
चूहों जैसी मज़बूत दाँत लिए किसान
खेत मजदूर, आदिवासी, भूमिहीन
बंटाईदार, मत्स्यपालक
कुतरने के लिए पूँजीवादी शासन की चोटियाँ
हाथों में बैनर, झंडे, प्लेकार्ड, फेस्टुन थामे
सर पर कफ़न जैसे अभियान का स्कार्फ
बाजुओं में प्रदर्शन की पट्टियां, तन पर शैश बांधे
मुख में नारों की बोल लिए
रामलीला मैदान से संसद मार्ग की राह में
जिनके प्रतिरोध के स्वर से
दुबक गए हैं दिल्ली के वनबिलाव, लकडबग्घे
ये शेरशाह सूरी या बाजीराव पेशवा की तरह
तलवारबाजी आजमाने कूच नहीं किये हैं सत्ता के केंद्र में
उनका मकसद राजमुकुट पाना नहीं है फिलहाल
उनके स्वर से छलक रहा है खेती के संकट की छटपटाहट
फसल उत्पादन का न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलने का दर्द
कर्जों में डूबे किसानों की चिन्ताएं
आत्महत्या करते खेतिहरों की ब्याकुलतायें
बड़े बांधों, ताप बिजली घरों से विस्थापन की कसमसाहट
कीट व पर्यावरण की क्षति, फसलों के नुकसान
ग्रामांचलों में बढ़ते माफिया तंत्र के दबाव
पुलिस फायरिंग में मरते कृषक-मुक्ति के वीर
मनरेगा जैसी सरकारी योजनाओं में
भयंकर लूट से उपजी बेचैनियाँ
थिरक रहीं थीं देश भर से जुटे कृषि योद्धाओं के चहरे पर
कौन है वह शातिर चेहरा
जो छीन रहा है जनता से कृषि योग्य भूमि का अधिकार
सेज, हाइवे, बांधों, रेलखंडों के नाम
कौन बुला रहा है विदेशी कंपनियों को
कार्पोरेट खेती कराने, एग्रो प्रोसेसिंग इकाइयां
बनाने के लिए हमारी छाती पर मूंग दलते हुए
हाइब्रिड बीजों, केमिकल खादों, जहरीली दवाओं
महँगे यंत्रों से कौन चीरहरण करना चाहता है
हमारी उर्वरता का?
वर्ल्ड बैंक, विश्व ब्यापार संगठन या अमेरिका के
ठुमके पर थिरकती हमारी केंद्र, राज्य सरकारें
तो आतुर नहीं है इस आत्मघाती खेल में
किसानों से छीन लेने को सामने के भोजन की थाली
लूट लेने को धान, कपास, मकई के खेतों की हरियाली
झुलसा देने को उनके चेहरे की उजास भरी रेखायें!