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दिल के कोने पीर ठहरने लगती है / रंजना वर्मा

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दिल के कोने पीर ठहरने लगती है
सपनों की ताबीर सँवरने लगती है

पलकों को जब मलयानिल है सहलाता
आंखों में तस्वीर उतरने लगती है

जब जब देखे चाँद झील के दर्पण में
शोभा सीमा चीर निखरने लगती है

कोई रखता हाथ कभी जब कन्धे पर
यादों की जंजीर बिखरने लगती है

अंकित समय शिला पर जो भी हस्ताक्षर
उम्र त्याग कर धीर गुज़रने लगती है

प्राण विहग जब व्यकुल हों उड़ जाने को
साँस बनी शमशीर विचरने लगती है

असहनीय हो जाती जब मन की पीड़ा
नयनों का बन नीर विहरने लगती है

दुख की घिरती हुई घटा के पीछे से
खुशियों की तासीर उभरने लगती है

खुल जायें यदि एक बार मन की आँखें
बिगड़ी भी तकदीर सँवरने लगती है