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दुख में वे धरती थे / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र

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तुम पुरखों की पूछ रहे हो
वे घर-घर ख़ुशबू बोते थे
 
उन्हें समय की परख
रही थी सही हमेशा
प्यार-दोस्ती उनके लिए
नहीं थी पेशा
 
दूजों के दुख में शरीक थे
अपने लिए नहीं रोते थे
 
मानें भाई, जादू था
उनकी आँखों में
सपने उनके तभी एक थे
हाँ, लाखों में
 
अपने दुख में वे धरती थे
सुख में आसमान होते थे
 
आता था उनको
सबके सँग साथ निभाना
बुन लेते थे वे
रिश्तों का ताना-बाना
 
चाहे जितने संकट आयें
कभी नहीं आपा खोते थे