दुबकी बस्तियों की चिंताएं / लक्ष्मीकान्त मुकुल
झांझर आसमान में चिड़ियों के पंख
उड़ान भरते ही बजने लगते थे
तेज चलती हवा के
झकोरों का चलना; हांफना तेज होने लगता
घरों की भित्तियों से टकराते हुए
मल्लाहों के गीत गूंज जाते, नाव सरकने लगती
मुड़ती दरियाव के झुकाव और खोती हुई उफंघती
नदी के किनारे की राह पकड़े
बहते पानी में चेहरा नापते बचपन के खोये झाग
बह चुके थे, कुओं में उचारे गये नाम
कुत्तों को काटने के किस्सों के साथ
पहुंचे थे जंगल घूमने की राह में
गर्मी में सूख चली नदी के बीच सिंदूर-आटे का लेप
चढ़ाना जारी रखा मां ने, बहनों की बामारियों की
खबरों को सूरज
रोज सुबह अपनी किरणों के साथ लाता
वन देनी के चबूतरे पर चढ़े प्रसाद
स्यारों के भाग माने जाते
गूंगी बस्तियों के लोग हल की मूठ पकड़े धन की जड़ों की
गीली सुगंध लेने आये मोरियों के धुप्प अंधेरे में बिला जाते
पतंग उड़ाने का भूत, कटी डोरियों में लिपटा हुआ
सारसों के गांव में ओझल हो चुका होता
पहेलियों में दुबकी बूढ़ों की कहानियां
सहेजते बच्चे कौड़ा की कुनकुनी चिनगारियों की टोह में
दूर देश चले जाते
सामने पड़े साल भर के रास्ते को छोड़
छमाही पथरीली पगडंडियां ही उनका साथ देतीं
घरों की परछांही लांघते धुरियाये पांव
सूतिका गृह के गंध् की ओर मुड़ जाते
वहां हमारा ठेठपन भी साथ दे रहा होता
तब होती पासऋ आंखों में चमकती हुई
पहाड़ी में दुबकी बस्तियों की
अंतहीन चिंताएं!।