दुशमन के जवानों से न एटमबम के निशानों से
डर लगता है बस केवल मजहब की दुकानों से ।
बकरे जीबह के लिए एक जगह मुकर्रर है
हक भी छिन गया है ऐसा बेबस इन्सानों से।
है दाँत हवाओं के पाइने ओर जहरीले
अफवाह उछालों मत चढ़ चढ़ के मचानों से।
रिश्ते आदमीयत के चाहते जो गर कायम रहे
रिश्ते तो अलग कर लो कौवे का ‘कानों’ से1 ।
गाये बुलबुल की या तूती गीत होगा अमन का ही वो
रोंनके गुलसिताँ बढ़ेगी इनके शामिल तरानों से।
‘ईश्वर, जानता है जहां की निस्तनाबूड ही हो गया
जब भी पत्थर चलाया गया शीशे के मकानों से।