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दु:ख की महायात्रा / वाज़दा ख़ान
Kavita Kosh से
वो एक महायात्रा थी
दुख ने पूछा चलोगी, पता नहीं कब
मैं धरती की मुंडेर पर अधलेटी
दुख में ही डूबी थी.
क्या दुख इतना प्यारा होता है?
इतना अपनापन होता है
उस सूनसान आकाश में
दोनों तरफ गंगा थी
उड़ते बादल और
बीच में हम
किसी अद्भुत अनुभव के सीने से
लिपटते हुए
जो नहीं था उसमें होते हुए
जो था उसे भुलाते हुए
बहुत सारी हंसी थी
उस दिन दुख में.
मैं भी हंस रही थी संग-संग
घूमते रहे हम सारा आकाश
वहां अंधेरे अंतरिक्ष में गए जो
मेरे भीतरी हिस्से से जुड़ा है.
क्या ये
प्रमाण नहीं है कि दुख कितना
अच्छा लगता है, उसके गले लगकर
रहना चाहती हूं
विलीन हो जाना चाहती हूं दुख में.