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दूर तक मायूसियों की रेत है बिखरी हुई / मेहर गेरा

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दूर तक मायूसियों की रेत है बिखरी हुई
आरज़ू ही यास के सहरा में नाखलिस्तान है

अपनी मर्ज़ी से ही मैंने गुमरही की अख्तियार
वरना मंज़िल का पता है राह की पहचान है

ज़िन्दगी बेरंग है ग़म की लकीरों के बग़ैर
इनके दम से ही तो नक़्शे-ज़िन्दगी में जान है

सुब्ह होते ही चला जायेगा मंज़िल की तरफ
इस सराए में मुसाफ़िर रात का मेहमान है

क्या कहें दौरे-तमन्ना में है कैसी ज़िन्दगी
काग़ज़ी फूलों का जैसे मेज़ पर गुलदान है

शाहराहों पर कोई चलता नज़र आता नहीं
अब पुरानी राह पर चलना भी कस्र-ए-शान है।