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दृष्टि में चन्दा / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

दृष्टि में चन्दा, करों में जाम है,
गीत साँसों में, महकता धाम है;
चाहता हूँ मैं कि बहले मन,
भीग जाते हैं मगर लोचन!

जाम रह कर भी न रहता हाथ में,
चाँद रह कर भी न रहता साथ में,

जब अजाने झूम कर मुझको,
देख लेता है कभी दरपन!
चाहता हूँ मैं कि बहले मन,
भीग जाते हैं मगर लोचन!

चू गया आँसू सुरा में आँख से,
झर गया ज्यों फूल महकी शाख से,
बढ़ गई-सी और कुछ पीड़ा,
बढ़ गया-सा और कुछ क्रन्दन!
चाहता हूँ मैं, कि बहले मन,
भीग जाते हैं मगर लोचन!

दब गई पलकें अजाने भार से,
बंध-गये – से होंठ कोमल तार से,

दर्द पीता जा रहा मदिरा,
और होता जा रहा चेतन!
चाहता हूँ मैं, कि बहले मन,
भीग जाते हैं मगर लोचन!