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देखा है कभी राख़ को घुन लगते हुए? / वंदना गुप्ता

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नारी के दृष्टिकोण से

सुना है नारी
सम्पूर्णता तभी पाती है
जब मातृत्व सुख से
आप्लावित होती है
जब यशोदा बन
कान्हा को
दुग्धपान कराती है
रचयिता की
अनुपम कृति तब होती है

यूँ तो उन्नत वक्षस्थल
सौंदर्य का प्रतिमान होते हैं
नारी का अभिमान होते हैं
नारी देहयष्टि में
आकर्षण का स्थान होते हैं
पुरुष की कामुक दृष्टि में
काम का ज्वार होते हैं
मगर जब इसमें घुन लग जाता है
कोई रेंगता कीड़ा घुस जाता है
सारी फसल चाट जाता है
पीड़ा की भयावहता में
अग्निबाण लग जाता है
असहनीय दर्द तकलीफ
हर चेहरे पर पसरा खौफ
अन्दर ही अन्दर
आतंकित करता है
कीटनाशक का प्रयोग भी
जब काम ना आता है
तब खोखले अस्तित्व को
जड़ से मिटाया जाता है
जैसे मरीज को
वैंटिलेटर पर रखा जाता है
यूँ नारी का अस्तित्व
बिना घृत के
बाती-सा जल जाता है
उसका अस्तित्व ही तब
उस पर प्रश्नचिन्ह लगाता है
एक अधूरापन सम्मुख खड़ा हो जाता है

सम्पूर्णता से अपूर्णता का
दुरूह सफ़र
बाह्य सौन्दर्य तो मिटाता है
साथ ही आंतरिक
पीड़ा पर वज्रपात-सा गिर जाता है
जिस अंग से वो
गौरान्वित होती है
साक्षात वात्सल्य की
प्रतिमूर्ति होती है
जो उसके जीवन की
उसके अस्तित्व की
अमूल्य धरोहर होती है
नारीत्व की पहचान होती है
जब नारी उसी से विमुख होती है
तब प्रतिक्षण काँटों की
शैया पर सोती है
बेशक नहीं होती परवाह उसे
समाज की
उसकी निगाहों की
किसी भी हीनता बोध की
सौंदर्य के अवसान की
अन्तरंग क्षणों में उपजी
क्षणिक पीड़ा की
क्योंकि जानती है
पौरुषिक स्वभाव को
क्षणिक आवेग में समाई निर्जनता
पर्याय ढूँढ लेती है
मगर
स्वयं का अस्तित्व जब
प्रश्नचिन्ह बन
खड़ा हो जाता है
तब कोई पर्याय ना नज़र आता है
आईना भी देखना तब
दुष्कर लगता है
नहीं भाग पाती
अपूर्ण नारीत्व से
स्वयं को बेधती
स्वयं की निगाह से
हर दंश, हर पीड़ा
सह कर भी
जीवित रहने का गुनाह
उस वक्त बहुत कचोटता है
जब मातृत्व उसका
अपूर्ण रहता है
बेशक दूसरे सुखो से
वंचित हो जाए
तब भी आधार पा लेती है
मगर मातृत्व सुख की लालसा
खोखले व्यक्तित्व पर
प्रश्नचिन्ह बन
जब खडी हो जाती है
वात्सल्य की बलि वेदी पर
माँ का ममत्व
नारी का नारीत्व
प्रश्नवाचक नज़रों से
उसे घूरता है
मृत्युतुल्य कष्ट सहकर
ज़िन्दा रहना उसे
उस वक्त दुष्कर लगता है
जब ब्रैस्ट कैंसर की
फैली शाखाओं के व्यूह्जाल को तोड़ वह खुद को निरखती है
तब ज़िन्दा रहना अभिशाप बन
उसके संपूर्ण व्यक्तित्व को
अभिशापित कर देता है
जो वास्तविक कैंसर से
ज्यादा भयावह होता है
अपूर्ण व्यक्तित्व के साथ जीना
मौत से पहले पल-पल का मरना
उसे अन्दर ही अन्दर
खोखला कर देता है
मातृत्व में घुला संपूर्ण नारीत्व
पूर्ण नारी होने की गरिमा
उसके मुखकमल के तेज को
निस्तेज कर देती है
जब अपूर्णता की स्याही उसकी आँखों में उतरती है

चंद लफ़्ज़ों में
उस भयावहता को बाँधना संभव नहीं
दर्द की पराकाष्ठा का चित्रण संभव नहीं
ये तो कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है
मगर लफ़्ज़ों में तो ना
वो भी व्यक्त कर सकता है
क्योंकि
मौत से आँख मिलाने वाली
खुद से ना आँख मिला पाती है
यही तो इस व्याधि की भयावहता होती है

कहना आसान होता है
बच्चा गोद ले लो
किसी अनाथ को प्रश्रय दो
जीने के नए बहाने ढूंढो
मगर जिस पर गुजरती है
वो ही पीड़ा को जानता है
जब खुद के सक्षम होने से
असक्षम होने के सफ़र को
वो तय करता है
क्योंकि एक उम्र गुजर जाती है
व्याधि की भयावहता से मुक्त होते-होते
और तब तक किसी-किसी का तो
मासिक भी बंद हो जाता है
जो पुन: ना आकार ले पाता है
तब उस पर जो गुजरती है
ये तो सिर्फ़ वह ही समझ सकती है
और एक फांस-सी दिल पर
उम्र भर के लिए गड जाती है
दोनों वक्षस्थलों को गंवाकर
अपने मातृत्व की संपूर्णता से
जब वह वंचित हो जाती है
तब घोर अवसाद से ग्रसित हो जाती है
और ऐसे ख्यालों में घिर जाती है
जब उस सुख से वह वंचित रह जाती है


यूँ ज़िन्दगी से बढ़कर कोई नेमत नहीं होती
जानती है वह...
फिर भी एक नवान्गना / तरुणी के जीवन की सम्पूर्णता
तो सिर्फ़ मातृत्व में है होती
सोच खुद को निरीह महसूसती है
एक प्रश्नचिन्ह उसके वजूद को
धीमे-धीमे खाता जाता है
जिसका उत्तर ना किसी को कहीं मिल पाता है
एक ऐसी बेबसी जिसका निदान न मिल पाता है
और उसे अपना अस्तित्व अपूर्ण नज़र आता है
फिर चाहे पीडा का स्वरूप क्षणिक ही क्यों ना हो
चीत्कार उठता है उसका अंतस बेबसी से उपजी पीड़ा से


देखा है कभी राख़ को घुन लगते हुए... ?



पुरुष के दृष्टिकोण से
जब से विषबेल अमरलता से लिपटी है
मेरे अंतस में भी मची हलचल है
यूँ तो प्रणय का ठोस स्तम्भ होते हैं
मगर जीवन के पहिये सिर्फ़
इन्ही पर ना टिके होते हैं
ये भी जानता हूँ मैं
अंग में उपजी पीड़ा की भयावहता को
तुम्हारे ह्रदय की टीस को पहचानता हूँ

संघर्षरत हो तुम
ना केवल व्याधि से
ना केवल अपने अस्तित्व के खोखलेपन से
बल्कि नारीत्व के अधूरेपन से भी

जो तुम नहीं कहती हो
वो भी दिख रहा है मुझे
तुम्हारी वेदना का हर शब्द
मेरे भीतर रिस रहा है
मकड़ी के जालों ने तुम्हें घेरा है
खोखला कर दिया है तुम्हारा वजूद
कष्टसाध्य पीड़ा के आखिरी पायदान
पर खडी तुम
अब भी मेरी तरफ
दयनीय नेत्रों से देख रही हो
सिर्फ मेरे लिए
मेरे स्वार्थ के लिए
मेरी क्षणभंगुर तुष्टि के लिए
सोच रही हो
कैसे गुजरेगा जीवन
अधूरेपन के साथ
मगर तुम अधूरी कब हुईं
तुम तो हमेशा पूरी रही हो
मेरे लिए

नहीं प्रिये... नहीं
इतना स्वार्थी कैसे हो सकता हूँ
जीवन के दोनों पहियों के बिना
कैसे गाड़ी चल सकती है
क्या तुमने मुझे सिर्फ़ इतना ही जाना
क्या मुझे सिर्फ़
विषयानल में फँसा दलदल का
रेंगता कीड़ा ही समझा
जो अपनी चाहतों के सिवा
अपने रसना के स्वाद के सिवा
ना दूजे की पीड़ा समझता है
नहीं... ऐसा संभव नहीं

क्या हुआ गर
ज़हरवाद ने तुम्हें विकृत किया है
क्या सिर्फ़ एक अंग तक ही
तुम्हारा अस्तित्व सिमटा है
तुम एक संपूर्ण नारी हो
गरिमामयी ओजस्वी
अपने तेज से जीवन को
आप्लावित करतीं
घर संसार को संभालतीं
अपनी एक पहचान बनातीं
ना केवल अपने अर्थों में
बल्कि समाज की निगाह में
संपूर्ण नारीत्व को सुशोभित करतीं
क्या सिर्फ़ अंगभंग होने से
तुम्हारी जगह बदल जाएगी
नहीं प्रिये... नहीं
जानती हो
ये सिर्फ़ मन का भरम होता है
रिक्त स्थानों की पूर्ति के लिए
प्रेम का अमृत ही काफी होता है
जहाँ प्रेम होता है वासना नहीं
वहाँ फिर कोई स्थान ना रिक्त दिखता है
क्योंकि यथार्थ से तो अभी वास्ता पड़ता है

शायद नहीं यक़ीनन
यही तो प्रणय सम्बंधों का चरम होता है
जहाँ शारीरिक अक्षमता ना
सम्बंधों पर हावी होती है
और सम्बंधों की दृढ़ता के समक्ष