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देखु कोऊ परम सुंदर सखि! बटोही।/ तुलसीदास
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(18)
रागकल्याण
देखु, कोऊ परम सुन्दर सखि! बटोही |
चलतमहि मृदु चरन अरुन-बारिज-बरन,
भूपसुत रुपनिधि निरखि हौं मोही ||
अमल मरकत स्याम, सील-सुखमा-धाम,
गौरतनु सुभग सोभा सुमुखि जोही |
जुगल बिच नारि सुकुमारि सुठि सुन्दरी,
इंदिरा इंदु-हरि मध्य जनु सोही ||
करनि बर धनु तीर, रुचिर कटि तूनीर,
धीर, सुर-सुखद, मरदन अवनि-द्रोही |
अंबुजायत नयन, बदन-छबि बहु मयन,
चारु चितवनि चतुर लेति चित पोही ||
बचन प्रिय सुनि श्रवन राम करुनाभवन,
चितए सब अधिक हित सहित कछु ओही |
दास तुलसी नेह-बिबस बिसरी देह,
जान नहि आपु तेहि काल धौं को ही ||