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दैनिक उत्सर्ग / शलभ श्रीराम सिंह
Kavita Kosh से
हँसते-हँसते होंठों की हँसी छीन लेते हैं लोग
देखते-देखते आँखों की रोशनी
बोलते-बोलते छीन लेते है शब्द
बाक़ी रह जाता है एक लम्बा इम्तिहान
सब कुछ दाँव पर लग जाता है यक-ब-यक
शुरू हो जाता है हार का सिलसिला
यहाँ तक कि ख़ुद को भी हार जाना पड़ता है एक दिन।
कहाँ काम आता है ऐसे में कोई
बच रहता है केवल
रोज़-रोज़ का आत्मघात।