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दोसरोॅ अध्याय / गीता / कणीक

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॥दोसरोॅ अध्याय॥


(गीतोपनिषद् के दोसरोॅ अध्याय में मोटा-मोटी तौरोॅ पर है उद्यृत छै कि हे शरीर नश्वर छै। आत्मा अविनाशी छै। गीता के यही टा उपदेशोॅ पर ओकरोॅ निचोड़ोॅ भी टिकलोॅ छै। वास्तव में यै अध्याय में कर्म योग आरो ज्ञान योग के साफ-साफ विवेचन करलोॅ गेलोॅ छै। भक्तियो योगोॅ के झलक काँही-काँही दृष्टिगोचर छै। अर्जुन केॅ समझावै लेली सभ्भे टा गूढ़ मंत्र यै अध्याय से उद्यृत छै। यै अध्याय केॅ सांख्य योग के नाम दै केॅ पूरे गीता के कन्टेन्ट्स केॅ समराइज्ड करलोॅ गेलोॅ छै।)

अर्जुन केॅ देखी शोकाकुल
आँखी में लोर चिन्तित व्याकुल
मधुसूदन देखि, दुःखी भेलै
फिन पार्थ सखा सें आ बोललै॥1॥

तों कैसे मन पालल्हौं अशुद्धि, हे अर्जुन! आर्य के परे बुद्धि?
उन्नत जीवन के बाधक जे, अपकीर्त्ति नरक परिचायक जे॥2॥

मत नपुंशकोॅ के धर्म धरोॅ, हे पार्थ, तों नैं हौ कर्म करोॅ
है क्षुद्र-हृदय के दुर्बलता, त्यागी केॅ परंतप, उठोॅ सखा॥3॥

अर्जुन बोललै हे कृष्ण धीर, केना फेकतै गांडिवें तीर?
भीष्मोॅ द्रोणोॅ के छाती में? जेकरा पुजला दिन राती में?॥4॥

ओकरा सें अच्छा भिच्छाटन, नैं देखौ गुरू-पुज्योॅ के मरण
हुनका सभ हमरोॅ दाता छै, जन्मोॅ-जन्मोॅ के नाता छै॥5॥

हमरा नैं पता की अच्छा छै? जीतौं-हारौं की सच्चा छै?
धृतराष्ट्र के पुत्रोॅ केॅ मारौं, या गुरूजन सभ सें खुद हारौं॥6॥

हमरा निज करतब नैं सूझै, कमजोर मनें कुछ नैं बूझै
होना परिवार ठो प्यारा छै, पर तोरे एक सहारा छै॥7-ए॥

हम्में अैलां अब शरण प्रभू, तोरे गुरूवाई वरण प्रभू
हमरा जल्दी कोय रस्ता देॅ, केना चलबै हौ बस्ता देॅ?॥7-बी॥

हमरोॅ चेतन ओझरैलोॅ छै, कोय अन्य ठौर नैं पैलोॅ छै
तोरा विनु हमरोॅ ठौर कहाँ? तोरोॅ विनु हमरोॅ खैर कहाँ?॥8॥

हौ अनदेखी नैं कर सकियौं, गर जीत धरा स्वगोॅ भरियौ
संजय ने कहलकै हे राजन! युद्धोॅ से विरत भेलै अर्जुन॥9॥

है कही, कटी टा शान्त भेलै, करजोरि कृष्ण पद पर झुकलै
केशव हँसलोॅ रथ सें अैलै, अर्जुन केॅ समझावै जुटलै॥10॥

एक गुरू-पात्र बनि समझाबै, अर्जुन केॅ ज्ञानी बतलाबै
बोललै तों अर्जुन ज्ञानी छॉे, बस, आत्म ज्ञान अज्ञानी छोॅ॥11॥

है कहियौं नैं भेलै कखनी, हम्में नैं जहाँ रहलां जखनी
नैं तोंहें, नै है नृपति सभी, भावी के फेर सेॅ बचभौॅ कभी?॥12॥

है देह मात्र एक छलना छै, अेकरा मांटी में मिलना छै
बस, आत्मा मरण सें छँटलोॅ छै, हौ देह-देहोॅ पर डंटलोॅ छै॥13॥

बचपन, यौवन बुढ़ारी तक, आत्मा दौड़ै हर पारी तक
बस एक देह से दोसरा में, दोसरा सें फेनू तेसरा में॥14॥

है रङ आत्मा ठो भटकै छै, हे पार्थ! कभी नैं अटकै छै
दुःख शोक अेकरा झेलै के, जाड़ा-गरमी में खेलै के॥15॥

एकरा सहला से पार पार्थ! नैं तेॅ झेलोॅ उद्गार पार्थ
सुख में जे नहीं बौराबै छै, दुःख में जे नैं औकताबै छै॥16॥

छै मुक्ती के हकदार वही, ओकरे छै बेड़ा पार सही
जे सच्चाई केॅ बुझनें छै, स्थिति रिक्तता सुझने छै॥17॥

ओकर्है आत्मा के ज्ञानोॅ छै, कर्त्तब्य क्षेत्र के मानोॅ छै
है आत्मा तेॅ अविनाशी छै, कोइयो नै एकरोॅ विनाशी छै॥18॥

खाली है देहोॅ के गंजन, यै लेली लड़ोॅ हे कुरूनन्दन
जें सोचै जीवित प्राणी छै, हौ सच में बड़ोॅ अज्ञानी छै॥19॥

है मरै-जियै के बृत दूर, आत्मा यै सें अलगे जरूर
नैं जन्मै छै आरो नैं मरतै, स्थिति बराबर में रहतै॥20॥

हे पार्थ केनां केॅ पारभौ तों? गुरू पितरोॅ केॅ संहारभौ तों?
जबेॅ हौ खाली एक आत्मा छै, जेकरोॅ शरीर के खात्मा छै॥21॥

हौ देह शरीर के बस्तर छै, लपका परिधान के अस्तर छै
हटि जैतै जबेॅ हौ देह-वस्त्र, पिन्हि लेतै नूतन देह-शस्त्र॥2॥

शस्त्रोॅ से आत्मा नै कटतै, आगिन से भी है नैं जरतै
नैं पानी में हीं है डुबतै, नैं हवाँ हीं एकरा लै उड़तै॥23॥

है आत्मा नैं टूटेॅ पारतै, है आत्मां नैं फूटेॅ पारतै
है अजर, अमर स्थायी छै, है नित्य असौख्य अछाई छै॥24॥

जेकरा नैं कभी देखेॅ पारभौ, जेकरा नैं कभी सोचेॅ पारभौ
परिवर्तन रहित जे आत्मा छै, ओकरोॅ नैं कखनूं खत्मा छै॥25॥

हे पार्थ! तोहें कुछ होश कर्हौ, नश्वर देहोॅ में चित्त नैं धर्हौ
जें जनम लेलकै मृत्यु धु्रव, मृत्यु उपरान्त भी जन्मेॅ धु्रव॥26॥

यै हेतु सोच सें हो निवृत, कर्त्तव्य करोॅ जेकरा में हित्त
है सोच घड़ी नैं हे अर्जुन! जे अैलै यहाँ जाहि के धुन॥27॥

सब देह तेॅ मात्र बहाना छै, बस एकांएकी जाना छै
शुरूवात अन्त एकरोॅ विचित्र, वै सोचोॅ में नैं पड़ोॅ मित्र॥28॥

कोय देखै छै आश्चर्य सहित, कोय बोलै छै आश्चर्ययुक्त
सुन्हौं में अचरज मानै छै, तैइयोॅ नै आत्मा जानै छै॥29॥

हे भरतवंशी! हे देह पति, एकदम अवद्य जेकरोॅ छै गति
वैं आत्मा के बूझोॅ तोहें, कैन्हें घेरावै छोॅ मोहें?॥30॥

तोहें क्षत्रिय छोॅ करम करोॅ, रणभूमि लड़ै के धरम धरोॅ
यै में सोचै के बात कहाँ? संकोच कहाँ छै तात, यहाँ?॥31॥

हौ क्षत्रिय धन्य छै जें लड़तै, पहुंची केॅ स्वर्ग-द्वार खोलतै
हे पार्थ! खुशी सें युद्ध करोॅ, है मौका छौं तो जाय भिड़ोॅ॥32॥

जों धर्म-युद्ध तों नैं लड़भौ, पापोॅ के भर तोंहीं झेलभौ
आपनोॅ कर्त्तव्य केॅ जल्दी चुन, रण हेतु सपरि निकलोॅ अर्जुन॥33॥

दुत्कार तोरा लोगें देथौं, अपमान तोरोॅ मानसें सहथौं
जों युद्ध-क्षेत्र में भेल्हौ चुक, सम्मान सहित मृत्यु के मुख॥34॥

सब महारथीं तोरा दुषथौं, डरपोक कही सभ्भैॅ थुकथौं
रण छोड़ी केॅ गर तों भागै छोॅ, डरपोक नाम हीं पाबै छोॅ॥35॥

तोरोॅ दुश्मन खुव्बे हँसथौं, तोहरा पेॅ बहुत कूट कसथौं
तों योग्य छोॅ हौ भरपाई कहाँ? एकरा सें बढ़ी दुःखदाई कहाँ?॥36॥

हे कुन्ती पुत्र! मरभौॅ तेॅ स्वर्ग, जित्ता में धरती भोग-मार्ग
यै लेली उठी केॅ लड़ोॅ वीर, रणक्षेत्रोॅ में नैं होय अधीर॥37॥

सुख-दुःख केॅ त्यागी लड़ॉे सखा, युद्ध खातिर युद्ध में भिड़ोॅ सखा
सब लाभ-हानि जय-हार छोड़ि, पापी चिन्ता के घड़ा फोड़ि॥38॥

है साँख्य योग के बात भेलै, जे तोरे हित में तात छेलै
आबेॅ योगोॅ के बात सुन्हौॅ, परिणाम रहित कर्मोॅ केॅ गुन्हौॅ॥39॥

भय सें जोगै के बात सही, बड़ी विध्वंशक छै मार्ग वही
अभि कर्म धर्म के सपना छै, यै जग में नैं कोय अपना छै॥40॥

बस एक मार्ग छै कुरूनन्दन! एकाग्र धरी करि लेॅ बन्दन!
है बुद्धि के ही तमाशा छै, एकर्है में मरलोॅ आशा छै॥41॥

जे अल्प बुद्धि के धारक छै, वेदोॅ के शब्द के लारक छै
जें स्वर्ग हंसोतै बात करै, पुष्पित भाषा में पात्र भरै॥42॥

हे पार्थ! चेतनां सें जौने, फल-प्रद कर्मोॅ के रूख करने
भोगोॅ के गति में जाबै छै, वें काम-क्रिया अपनावै छै॥43॥

जेकरा मानस में भोग बसै, जेकरा मानस में काम हँसै
हौ भक्त कभी भी नैं बनतै, परमात्मा सें हौ नैं मिलतैं॥44॥

हे अर्जुन! वेद के तीनें छै, हौ तीन्हूं से ऊपरोॅ के धुन
ओकरा सें निवृत होना छौं बस, आपनोॅ मंजिल पाना छौं॥45॥

जो छोट्है पोखरोॅ सें ऊबरै, फिर बड़ोॅ जलाशय कैन्हें धरै?
वें वेद शास्त्र के बात करै, जे वै गहराई तक उतरै॥46॥

बस कर्म करै के हक तोरोॅ, परिणाम के नैं तों चिन्ता करोॅ
फल के आशा सें दूर रहोॅ, कर्त्तव्य पथोॅ के घात सहोॅ॥47॥

हे अर्जुन! योग में लीन हुवोॅ, आपनोॅ ठो कर्तव केॅ ही छुवोॅ
जीतै-हारै के बात भुलोॅ, खाली योगोॅ के राह चलोॅ॥48॥

फल-काम मोह केॅ बस राखोॅ, वै योग चेतनां केॅ देखोॅ
परिणाम हेतु जे उत्सुक छै, हौ महाकृपण आरो भिक्षुक छै॥49॥

जे भक्ति कार्य में जुटलोॅ छै, अच्छा खराब सें हटलोॅ छै
बस, योग कर्म में पड़ना छौं, कर्मोॅ-कौशल सें लड़ना छौं॥50॥

जे ज्ञानि भक्ति में जुटलोॅ छै, हौ जन्म-मरण सें कटलोॅ छै
हौ फल कामना सें मुक्त मनुख, ऊपर उठलै छोड़ी केॅ दुःख॥51॥

बुद्धि तोरोॅ जखनी टपथौं, मोहोॅ के कातन में फँसथौं
तखनी तोहें निर्विघ्न होभौ, की सुनना छै हौ नैं सुनभौ॥52॥

वेदोॅ के पुष्पित भाषा सें, आपन्है महसूसै आशा में
जबेॅ तोरोॅ ध्यान नहीं फँसथौं, दैविकी चेतना फिन धँसथौं॥53॥

अर्जुन कहलकै हे केशव! स्थित-प्रज्ञोॅ के की मतलव?
हौ कैसें बोलै बाजै छै? हौ कैसें बैठै राजै छै?॥54॥

भगवानें बतैलकै सुनोॅ पार्थ! जे भुली गेलै कामना अर्थ
जबेॅ वें सन्तोष जताबै छै, वें तभैं चेतना पाबै छै॥55॥

दुःखोॅ सें जे उद्विग्न नहीं, सुख्खोॅ सें हर्ष में मग्न नहीं
जे बीत-राग-भय-क्रोध रहित, स्थिर रहबै में जेकरोॅ हित॥56॥

जे केखरौ से संबद्य नहीं, स्तुति-निन्दा सें बद्य नहीं
शुभ-अशुभ सें जे की ऊपर छै, स्थित प्रज्ञोॅ के हौ नर छै॥57॥

जे रङ कछुवा छै खोलोॅ में, सब अंग छिपैने ढ़ोलोॅ में
स्थित-प्रज्ञें वस वही रंग, ज्ञानोॅ के छिपाबै वही ढंग॥58॥

विषयोॅ सें वर्जित है आत्मा, जें स्वाद रसोॅ के करि खात्मा
अनुभूति से आवद्य नहीं, हौ स्थित-प्रज्ञ के बात सही॥59॥

हे कुन्ती पुत्र! नर-क्षूद्र-ज्ञान, इन्द्रिय के संग ही मन के भान
जोरोॅ से यै केॅ घुमाबै छै, प्रज्ञें ही नियंत्रण पाबै छै॥60॥

जेकरोॅ मन इन्द्रिय नियंत्रित, आपन्है ज्ञानोॅ पेॅ जे आश्रित
वें हमरा ही अपनाबै छै, स्थित-प्रज्ञोॅ में गिनाबै छै॥61॥

जें काम विषय अपनैंनें छै, जेकरा भोगें नें छकैनें छै
ओकरा कामें की छोड़ै छै? हौ लोभ-क्रोध पीछु दौड़ै छै॥62॥

क्रोधेॅ नें मोह केॅ फाँसै छै, मोहोॅ सें स्मृति भाँसै छै
स्मृति भँसला सें बुद्धि नाश, बुद्धि नाशोॅ पर ही नर विनाश॥63॥

जे राग-द्वेष बिकार रहित, जेकरोॅ इन्द्रिय छै नियंत्रित
हौ परमात्मा केदया पात्र, ओकरा मानोॅ तों प्रज्ञ तात!॥64॥

जे भक्ति-ज्ञान में लीन मनुज, भौतिक तापोॅ से दूर मनुज
हौ हर्षित क्षेत्र के ज्ञानी ही, कहलावै छै विज्ञानी ही॥65॥

हौ बुद्धिहीन प्राणी के की? जेकरा नै नियंत्रण मन पर ही
वें शान्ति कभी पाबेॅ पारतै? फिर खुशी कहाँ सें वें लानतै?॥66॥

जैसें नद्दी के नावोॅ केॅ, तूफानें उड़ाबै बहाबोॅ में
वैसें मन बुद्धि बहाबै छै, मनुजोॅ केॅ गर्त गिराबै छै॥67॥

यै लेलि तोहें हे महाबाहु! प्रज्ञोॅ के संग में अबसि जाहू
जे इन्द्रिय केॅ बस करने छै, विषयोॅ पेॅ नियंत्रण धरने छै॥68॥

है राती के सपना तोड्हौ, जागी केॅ नव-रस्ता ढूड्हौ
आपना पेॅ नियंत्रण कर्हौ गुणी, जाग्हौ जेना कि ऋषि मुनी॥69॥

हे रङ नद्दी पर्वत फाननें, सागर में मिलै छै बलखैने
कामना बहैनें वही रङ हमरा में मिल्हौ तों एक संग॥70॥

तों कामना त्यागि अहं मारि, शान्ति सागर में मन केॅ धारि
हे पार्थ! ब्रह्म में आन मिलोॅ, निर्माण तलाशै हेतु पिलोॅ॥71॥

जीवन के अन्तिम बेला में
मनुजें पहुंचै छै अकेला में
जे रस्ता छै बिल्कुल नगीच
आत्मा-परमात्मा केरोॅ बीच॥72॥