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दो दरवाज़ों के बीच / शलभ श्रीराम सिंह
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दो दरवाज़ों के बीच
चन्द लम्हों के भीतर
मन और जीवन की
कितनी-कितनी लम्बी यात्राओं पर
निकलते रहे हैं हम साथ-साथ अक्सर।
दीन-दुनिया से बेख़बर
बेख़बर घर-संसार से
यहाँ तक कि अपने आप से बेख़बर
अपनी साँसों के भूगोल में
वनस्पतियों की एक नई दुनिया समेटे
कितनी-कितनी लम्बी यात्राओं पर
निकलते रहे हम।
फूलों का एक अदृश्य मौसम
हमारे आस-पास रहा है अन्धेरे में हमेशा
उजाले में रही है एक पृथ्वी
अपने सब से ज़्यादा ख़ूबसूरत सपनों से लैस
पृथ्वी के सपनों में वैसे रहे हैं हम
जैसे
हवा में संगीत
खून में गर्मी
फूल में रंगत
दिन हो कि रात
होता रहा है यह सब कुछ
दो दरवाज़ों के बीच
मन और जीवन की
लम्बी यात्राओं के दरम्यान
जब-जब साथ रहे हैं हम।
रचनाकाल : 1992 मसोढ़ा