दो फाड़ / मुकेश निर्विकार
मेरे व्यक्तित्व के दो पहलू हैं
एक दुसरे से नितान्त विषम!
मुझे अपने से जुड़ी अनेक चीजों में
मजबूरन बदलाव करना पड़ा
बदलनी पड़ी/मुझे युवा बच्चों की खातिर
अपनी ‘पोशाक’, जो बन गई ‘ड्रेस’ शहर में आकार
गाँव की बोली-बानी की सहजता-सरलता और मिठास
शहर आकार तिरोहित हो गयी,
मेरी भाषा में बची है, मात्र बनावट और दिखावट।
अब तो विषमता यह है की मुझे
अपने ‘प्योर शहरी बच्चों’ से किसी और
तथा गाँव के अपने परिजनों से किसी और
भाषा में बात करनी पड़ती है।
मैं असमानताओं के दो किनारों के बीच
नदी के प्रभाव-सा जीवन जी रहा हूँ
कभी इस किनारे को स्पर्श करता हूँ
तो कभी उस किनारे को हसरत से देख भर पाता हूँ
मेरी नियति किसी पेंडुलम की तरह है
मुझे तो दोलन करना है इधर-उधर
मेरे नागरिक बच्चे नगर की तरफ
और ग्रामीण परिजन गाँव की तरफ
शिद्दत से खींच रहे हैं मुझे
और में सर्वथा विवश हूँ---
आखिर, कलेजे के दो फाड़
तो कर नहीं सकता
किसी भी तरह से!