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दो वर्षा-गीत / जगदीश गुप्त
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एक
बादल घिर आए री बीर !
फिर फिर आए,
घिर घिर छाए,
गरज तरज गम्भीर
बादल घिर आए री बीर !
नैना रोए,
आँसू बोए,
तभी गगन से फूट धरा पर,
बरसा इतना नीर ।
बादल घिर आए री बीर !
डगमग नैया,
फिर पुरवैया —
पाल समझ कर लिए जा रही
खींचे मेरा चीर ।
बादल घिर आए री बीर !
दो
घेर आए घन ।
पारतीं काजल दिशाएँ ।
दिवस पर छाईं निशाएँ ।
कौन लाया खींच ।
काले बादलों के बीच,
मेरा मन ?
थिरकतीं पागल बिजलियाँ ।
फूटती ज्यों स्वर्ण कलियाँ ।
बिखरते नग-हीर,
झरता नूपुरों से नीर,
सोना बन ।