भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धरती की छाती पर अन्धकार कल भी था / रामकुमार कृषक
Kavita Kosh से
धरती की छाती पर
अन्धकार कल भी था
आज भी घना,
भीत भोर
उजियारा मौन अनमना !
क्षितिजों से
जितने भी सूर्य उगे
क्षितिजों पर भस्म हो गए
सिर्फ़ एक अँजुरी - भर
रस्म बो गए,
सेतुबंध तैरा जो
टूट कब बना !
उज्ज्वलतम
जितने भी पृष्ठ खुले
स्याही इतिहास बन गई
एकाधिक मिथ्या
सायास जन गई ,
नंग - मूढ़ आदम ने
ज्ञान क्या चुना !