धर्या सिर पाप घड़ा, क्यूं तलै खड़ा / दयाचंद मायना
धर्या सिर पाप घड़ा, क्यूं तलै खड़ा, ईब नहीं बसावै पार
या गाड़ी टूट लई मेरे यार...टेक
जत का जूआ ज्योत टूटगे, सत की सिलम रही कोन्या
ल्याज, शर्म का डिग्या लालवा, नाके नाड़ सही कोन्या
ऊतपणा म्हं फिरै ऊंटड़ा, डामांडोल डही कोन्या
लग्या आरा म्हं, घुण सारा, आमण पूठी बेकार
या गाड़ी...
बल्ली, ब्री सारी खुलगी, आकै पड़ी धर्ण के मांह
पाप बोझ का डिग्या पाटड़ा, कोन्या रहा प्रण के मांह
मूंग मोतिया सिर म्हं लाग्या, आगी जान मरण के मांह
रंग बिगड़ा, सब ढंग बिगड़ा, सट सिर म्हं सेहरा मार
या गाड़ी...
गाड़ी के दो पहिए घिसगे, भार सहण की फड़ टूटी
धुरा पाप का कती पाट्ग्या, ज्यूं मोती की लड़ टूटी
ठट्ठा म्हं गई टूट ठिकाणी, केले कैसी धड़ टूटी
ठीक नहीं, सही लीख नहीं, चलै बारा पत्थर बाहर
या गाड़ी...
पुन की पाती नै जर खाग्या, रही कर्म की कील नहीं
सब गाड़ी का ईंधन होग्या, इब फूकण की ढील नहीं
कह दयाचन्द गडवाले की, लागै राम अपील नहीं
जाणा हो, दुख ठाणा हो, होले पैदल असवार