धीमे-धीमे / लक्ष्मीकान्त मुकुल
दूध के दांत का टूटना
सतह पर पसरी दूबों के गले में
बांधने का पुराना खेल था
पुराने किस्से थे नानी के गांव के
ईख की धरदार पत्तियों के बीच डूबती
खेतों की मेड़ें कभी न बन सकने वाली
सीमायें थीं सीवानों के बीचों-बीच
सीना ताने ज्वार के पौधे थे
झलांसों की खेती
न उपजने का आधर थी
कई-कई सालों तक
अधभूखे लोग थे, पेट जलने की
चिंताएं घास चरने गई थीं उन दिनों
उन दिनों चमगादड़ों का चीखना
अपसकुन का संकेत नहीं माना जाता
नहीं की जाती आशाओं में हेरा-फेरी
बबुरी वनों की निपट अहेरी
बेकार की बातें नहीं थीं
लहरों से जूझते समुद्री गांवों में
बच्चों का खोना खेल नहीं माना जाता
कोमल धगों के संबंध
बिखरे नहीं थे उन दिनों
बुझी नहीं थी दीया-बाती की
जलती-तपती लपटें
तब धीमे-धीमे चलते थे लोग
धीमे-धीमे पौधे बढ़ते थे
आंधी धीमे-धीमे चलती थी।