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धुन / लक्ष्मीकान्त मुकुल
Kavita Kosh से
मटमैला अंधेरा
घेरा बनाता मौन था
पक्षियों की तड़फड़ाहट से
सूर्यग्रहण के पुराने किस्सों की ताजगी में
डूबता जा रहा था आकाश
बूंदा-बांदी की घड़ी
बेहाथ हो चली थी
कांप रही थी जौ की बालियां
पेड़ भूल रहे थे पतझड़ का मौसम
सारंगी धुन पर
कोई सुबह से ही बैठा गा रहा था
फसलों का धीमा संगीत।