Last modified on 15 अक्टूबर 2010, at 16:53

धूप-ही-धूप में निकला / केदारनाथ अग्रवाल

धूप-ही-धूप में निकला
मेरे पास से
काले पहाड़ का हाथी।

आश्वस्त कर गया मुझे
उस पर सवार
मेरी शक्ल का महावत।

आतंकित मैं
न रहा आतंकित;
देह में आ गया मैं-
देह का हुआ;
हर्ष की हिलोर में
नहा गया मैं।

चलते चले जाते हैं
छोकरे-
तालियाँ बजाते-
पछियाए,
हाथी की सूँड़ को
स्वर्ग की नसेनी
और कानों को
इंद्रपुरी के द्वार बतलाते।

रचनाकाल: ०५-०२-१९७८